लोगों की राय

सामाजिक >> न्याय अन्याय

न्याय अन्याय

विमल मित्र

प्रकाशक : राजभाषा प्रकाशन प्रकाशित वर्ष : 2006
पृष्ठ :104
मुखपृष्ठ : सजिल्द
पुस्तक क्रमांक : 5842
आईएसबीएन :81-811-014-4

Like this Hindi book 9 पाठकों को प्रिय

106 पाठक हैं

इस विश्व के सृष्टिकर्ता जब किसी मनुष्य को दुनिया में भेजते हैं, भेजने के साथ ही मन नामक एक वस्तु उसके अंदर डाल देते हैं और कहते हैं, ‘‘अब जाकर संघर्ष करो...’’

Nyay Anyay

प्रस्तुत हैं पुस्तक के कुछ अंश

हम, तुम, सभी जब अपने-अपने जीवन को लेकर अत्यंत व्यस्ततता में डूबे रहते हैं, हमारे चारों तरफ इस धरती पर कितने काव्य, कितने नाटक, कितने उपन्यास लिखे जा रहे हैं, इसका हिसाब-किताब कौन रखेगा ? जिस प्रकार यह दुनिया छोटी नहीं है, आदमी भी उसी लिहाज से इतने अधिक हैं कि गणना नहीं हो सकती। किसको केन्द्र मानकर लिखूं, किसके बारे में सोचू-समझूं, कितने व्यक्तियों की कितनी समस्याओं के कारण माथापच्ची करता रहूं ? बीच-बीच में जब मैं सड़क पर चहलकदमी करता हूं, आसपास के तमाम लोगों के चेहरे-मोहरे की ओर गौर से ताकता हूं तो सभी व्यस्त दीखते हैं, सभी हतप्रभ-सभी समस्याओं में उलझे हुए। हालांकि किसी सड़क के मोड़ पर आदमी का जत्था जब भीड़ बन जाता है, सभी आदमी एक-दूसरे से अपनी –अपनी बातें बताने को बेचैन दीखते हैं।

कभी-कभी देखने में आता है कि आदमी भागती भीड़ की तरफ चुपचाप ताक रहा है, फिर वह सिगरेट का कश लेता है और आगे की ओर बढ़ जाता है।
मैं हर आदमी की तमाम बातें जानना चाहता हूं, हर किसी की समस्या से अवगत होना चाहता हूं।
बात ऐसी नहीं है कि हरेक की तमाम बातों की जानकारी से मेरा बहुत ही उपकार होगा या मैं सभी की समस्याओं का निदान खोज निकालूंगा।

असल में निदान किसी के वश की बात नहीं है। इस विश्व के सृष्टिकर्ता जब किसी मनुष्य को दुनिया में भेजते हैं, भेजने के साथ ही मन नामक एक वस्तु उसके अंदर डाल देते हैं और कहते हैं, ‘‘अब जाकर संघर्ष करो...’’
देह के साथ अगर यह मन न होता तो झंझट की कोई बात नहीं थी। लेकिन यह हुआ नहीं, दुनिया में जितने भी झंझटों की शुरुआत होती है, उसका कारण यह मन ही है। यह मन ही आदमी के सभी विनाशों की जड़ है।
इसी तरह की एक समस्या की बातें आपको बताने जा रहा हूं।


2



हर रोज सवेरे नींद खुलते ही सड़कों पर घूमने के लिए निकलना मेरी आदत में शुमार हो गया है। इसका कारण आंशिक तौर पर स्वास्थ्य के प्रति सजगता है और आंशिक तौर पर देखना-परखना। और न केवल देखना बल्कि देखने के साथ-साथ सुनना भी। देखना और सुनना मेरी प्रकृति है।
देखते-देखते, सुनते-सुनते ही कितने आदमियों को मैंने जाना-पहचाना है, कितनों की समस्याओं से मैं खुद जड़ित हो गया हूं, इसकी कोई सीमा नहीं। लेकिन बहुत बार ऐसी भी बातें हुई हैं जबकि बहुत अधिक जान नहीं पाया, बहुत अधिक सुन नहीं सका।

कभी-कभी सड़क के किनारे दो-चार लड़के आपस में गपशप करते दिखते हैं। बगल से गुजरता हूं तो सिनेमा, या लड़की या किसी घर की कलंक-जनित कहानी के गिर्द चक्कर काटता है। बगल से गुजरते वक्त बातों के जो टुकड़े कानो में पहुंचते हैं, उन्हीं से उनके चरित्र का आभास मिलता है। परन्तु जब पार्क में चक्कर काटता हूं तो और ही दृश्य दृष्टि-पथ में आते हैं, और ही तरह के बहस-मुबाहसे सुनने को मिलते हैं। सात से आठ और आठ के बाद नौ बजने को हैं। पार्क के अंधेरे कोने में लड़के और लड़कियों के जोड़े अन्तरंगता में बातचीत करने में मशगूल हैं। बगल से गुजरते वक्त उनकी बातचीत के जो टुकड़े मेरे कानों में आते हैं, उनसे उनके बहस-मुबाहसे की कोई झलक नहीं मिलती।

लेकिन मन ही मन मुझे दुख का अहसास होता है। अहा, बेचारे गरीब हैं। कहीं किसी ड्राइंगरूम के एकांत में बैठकर बातचीत कर सकें, ऐसे आश्रय-स्थल उन्हें नसीब नहीं। कोई गाड़ी भी उनके पास नहीं है। गाड़ी ड्राइव करते हुए गंगा या लेक के किनारे वीरान में जाकर, जन –साधारण की आंखों की ओट में बैठकर दो हृदय आपस में वार्तालाप कर सकें, ऐसा भी स्थल उनके लिए नहीं है।

इन्हीं अभियानों के दौरान एक दिन केशव बाबू से मेरा परिचय हुआ।
केशव बाबू कहते, ‘‘असल में जीवन नाटक नहीं है साहब, जीवन एक यातना है। नाटक और यातना एक ही वस्तु नहीं हुआ करते...’’
मैं पूछता, ‘‘क्यों ? आप ऐसी बातें क्यों कर रहे हैं ?’’
‘‘यही देखिए न,’’ केशव बाबू कहते, ‘‘जिन्दगी-भर मैंने कभी किसी काम से जी नहीं चुराया, बचपन से ही मन लगाकर लिखा-पढ़ा। सोचा था अच्छा स्टूडेंट होने पर ही मान-सम्मान मिलेगा। मगर नतीजा क्या हुआ ? बी.ए., एम.ए. में फर्स्ट करने से ही क्या होता है ? उसके साथ निष्ठा की जरूरत पड़ती है।’’

‘‘निष्ठा ? निष्ठा के बारे में कह रहे हैं ? जानते हैं, तीस बरसों तक मैंने लगातार काम किया है, उस बीच एक भी दिन गैर हाजिर नहीं रहा, एक भी दिन लेट नहीं। जिस दिन मेरी पत्नी की मृत्यु हुई...’’ कहते-कहते केशव बाबू की आवाज एक क्षण के लिए जैसे रुक गई थी।

असल में केशव बाबू से मेरी जो जान-पहचान हुई, एक ही दिन में वह जान-पहचान घनिष्ठता में परिवर्तित नहीं हुई थी। शुरू-शुरू में मैं उन्हें बालीगंज के बड़े पार्क में चुपचाप बैठा देखता था।

आमतौर से बूढ़े लोग शाम के वक्त जमात में बैठते हैं और व्यतीत की स्मृतियां दोहराते हैं। एक दिन का पूरा वक्त वे अपने-अपने घरों में किसी तरह गुजार देते हैं। हर किसी का परिवार बढ़ गया है। उम्र बढ़ने पर सभी वैसे ही हो जाया करते हैं। तब परिवार में जिनकी उम्र कम होती है, उन्हीं के प्रभाव और ख्याति-सम्मान की अभिवृद्धि होने लगती है और जो परिवार के स्वामी होते हैं उनका प्रभाव और ख्याति-सम्मान उसी अनुपात से कम होने लगता है। नियम यही है।

यही वजह है कि उम्र ढलते ही वृद्ध गृह-स्वामी बिलकुल एकाकी पड़ जाते हैं। बात-चीत करने के लिए कोई संगी-साथी नहीं मिलता। जो उनकी बातें सुन सके, ऐसे श्रोता उन्हें नहीं मिलता। तब एकमात्र अवलंब होते हैं। पार्क, सुबह-शाम को पार्क में बैठने वाले हम उम्र लोग। और वे बूढ़े न तो दोस्त-मित्र हुआ करते हैं और नहीं सगे-सम्बन्धी। उन लोगों से ठीक से सुख-दुख की बातें नहीं हुआ करतीं। किसी से भी संवेदना के शब्द सुनने को नहीं मिलते। एक का दूसरे से केवल श्रोता और वक्ता का ही सम्बन्ध रहा करता है। यह मैं बहुत दिनों से अनुभव करता आ रहा हूं।

लेकिन केशव बाबू की बात अलग ही है। उनके न तो कोई संगी-साथी ही दीखते थे और न वे किसी से बातचीत ही करते थे। चुन-चुनकर वे ऐसे एकान्त कोनों में जाकर बैठते थे, जहां कोई नहीं जाता था।
हर रोज इसी तरह हुआ करता था।

यह देखकर मुझे हैरानी होती थी। दुनिया में, दुनिया की राह-बाट में, दिलचस्पियों के इतने साधन हैं और यह बुडढा यहां अकेले बैठकर अपना वक्त कैसे गुजारता है ?

एक दिन मौका देखकर मैं उसी बेंच की खाली जगह पर जाकर बैठ गया। मेरे बैठने पर उद्देश्य यही था कि उनसे जान-पहचान हो सके। लेकिन उन्होंने मेरी ओर कोई ध्यान नहीं दिया। मैं कोई जीवित व्यक्ति उनकी बगल में हो सकता हूं, इस बात को उन्होंने सोचा तक नहीं।

एक दिन मेरे मन में हुआ कि उनसे बातचीत करूं। यानी उनसे परिचित होऊं। बहुत देर तक चुपचाप बैठे रहने के बाद मैंने कहा, ‘‘बता सकते हैं कि अभी वक्त क्या हो रहा है ?’’

केशव बाबू ने तटस्थ से कहा, ‘‘मेरे पास घड़ी नहीं है।’’
घड़ी नहीं है तो मत रहे। मगर उन्हें कुछ-न-कुछ कहना तो चाहिए।
फिर कोई बात करूं, इसका सूत्र मुझे खोजने पर भी नहीं मिला।


3



पहले दिन इसी प्रकार परिचय हुआ।
उसके दूसरे दिन बाद थोड़ा और। उसके बाद थोड़ा और। अन्ततः जब सातेक दिन व्यतीत हो गए, वे बोले, ‘‘आप हर रोज आया कीजिए...’’
‘‘मैं हर रोज आता हूं।’’ मैंने कहा।
‘‘हां, हर रोज आया कीजिए,’’ उन्होंने कहा, ‘‘इस मुक्त आकाश के तले स्वच्छन्द वायु में, जहां हरी-भरी घास है। ये-पेड़-पौधे। इनकी ही कीमत है करोड़ों रुपये।’’
‘‘सो तो है ही।’’ मैंने कहा।

भले आदमी ने कहा, ‘आपकी उम्र कम है, अभी मेरी बात की कीमत आपकी समझ में नहीं आएगी, किसी दिन बत्तीस से बयालीस होगा, बयालीस से बावन, बावन से बासठ-तब आपकी समझ में आएगा कि इस मुक्त आकाश, स्वच्छन्द वायु की कीमत क्या है। आपकी तरह जब मैं कम उम्र का था, तब बात मेरी भी समझ में नहीं आती थी। अब समझ रहा हूं....’’
उसके बाद एक क्षण चुप रहने के बाद बोले, ‘‘कभी ज्यादा बातचीत मत करें। ज्यादा बातचीत करने का मतलब है—आयु-क्षय।’’
मैं उनकी बातें मन लगाकर सुना करता था। और वे आहिस्ता-आहिस्ता, कुछ-रुक कर, बातचीत किया कर करते थे।

‘‘देखिए,’’ वह कहते, ‘‘मैंने जिन्दगी-भर कभी काम से जी नहीं चुराया, बचपन में मन लगाकर लिखा-पढ़ा, लेकिन बी.ए., एम.ए. में फर्स्ट होने से ही क्या आता-जाता है ?’

‘‘मैंने कहा, ‘‘जरूरत है...’’
‘‘किसी दिन यह सब आपको समझाऊंगा। एक दिन में आप सब कुछ समझ नहीं सकेंगे। मिसाल के तौर पर यही लीजिए, कि मैंने जिन्दगी भर नौकरी की है। जिन्दगी के आखिरी वक्त में, नौकरी की एक-एक सीढ़ी तय करता हुआ, मैं ऊंच-से ऊंचे पद पर पहुंच गया। उस वक्त मेरे बास बनकर जो मिनिस्टर साहब आए, वे थे इंटरमीडिएट-फेल। और मैं उनके अण्डर में काम करता था। मैं यानी जो एम.ए. में फर्स्ट क्लास-फर्स्ट आया था। इसीलिए जब मेरी पत्नी की मृत्यु हुई...’’

रोज-रोज यही सिलसिला चल रहा था। कुछ बातें बताते थे और कुछ मन के अन्दर दबाकर रख लेते थे। सब कुछ जाहिर करने में उन्हें जैसे किसी बाधा का अनुभव होता था।
फिर भी मैंने निराशा को अपने पास फटकने नहीं दिया। किसी से उनकी कहानी जाननी हो तो निराश होने से काम नहीं चल सकता है। इसके लिए धैर्य जरूरी है, तितिक्षा और अध्यवसाय की जरूरत पड़ती है।


प्रथम पृष्ठ

अन्य पुस्तकें

लोगों की राय

No reviews for this book

A PHP Error was encountered

Severity: Notice

Message: Undefined index: mxx

Filename: partials/footer.php

Line Number: 7

hellothai